विवाह एक नैतिक बलात्कार ?


धर्म के द्वार पर कपिल मुनि का जन्म




विवाह का स्वरूप
मनु और सतरूपा ने जब अपनी पुत्री देवहूति का हाथ कर्दम ऋषि के हाथ में देने की इच्छा प्रकट की तो कर्दम ने कहा- मैं भोग-विलास के लिए नहीं, परन्तु पत्नी के साथ नित्य सत्संग करके आत्म सुख प्राप्त करने के लिए विवाह करना चाहता हूँ। मुझे भोगपत्नी नहीं, धर्मपत्नि चाहिए। हमारा संबंध संसार का उपभोग करने के लिए नहीं, बल्कि नाव और नाविक की तरह संसार सागर पार करने के लिए होगा।अत: एक पुत्र की प्राप्ति के बाद मैं सन्यास लूंगा। क्या आपको स्वीकार्य है? मनु सतरूपा बड़ी उलझन में पड़े, किन्तु देवहूति ने तपस्वी की सेवा स्वीकार्य कर ली और वल्कल वस्त्र पहन लिए।
विवाह के बाद नवदम्पति ने बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और पत्नी ने पति सेवा व्रत का निर्वाह किया।
सेवा से प्रसन्न होकर कर्दम ने पत्नी की इच्छा को पूर्ण करना चाहा तो पत्नी ने कहा- और दूसरी कोई इच्छा नहीं हैं। हाथ पकड़कर लाए हो तो हाथ पकड़ कर प्रभु के दरबार में भी पहुँचा दीजिए।
ऐसे दिव्य दाम्पत्य के द्वार पर ही कपील भगवान पुत्र के रूप में पधारे।
विवाह के बारे में कैसी सुन्दर जीवन-दृष्टि थी प्राचीन काल में।
आज के वातावरण में यह तो सम्भव नहीं है कि बारह वर्ष तक कोई ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सकें। किन्तु क्या आज विवाह का यह नैतिक स्वरूप दिखाई देता हैं कहीं? सामाजिक विवाह, परम्परा आज विवाह का एक नैतिक प्रमाण-पत्र मात्र रह गया है। यह एक ऐसा प्रमाण-पत्र हो गया है, जिसकी आड़ में स्त्री-पुरुष शारीरिक भुख तो मिटा रहे हैं, परन्तु 'मन' और 'आत्मा' का खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं। फलस्वरूप सुसंतति का विषय गौन हो चुका है। जबकि विवाह का मुख्य उद्देश्य काम रूपी आनंद के साथ सुनियोजित संस्कारों से सुसंतति को जन्म देना है, ताकि धरती उपयुक्त मानसिकता के साथ ही शारीरिक सबल मानवजाति से परिपूर्ण हो सकें।
भारत के संविधान रचियताओं को भी इस विषय का ज्ञान था, इसलिए भारतीय दण्ड संहिता की की धारा 376 में इसका बखुबी उल्लेख किया गया है एवं धारा 377 में अप्राकृतिक संभोग तथा घरेलु हिंसा धारा 498अ में शारीरिक के साथ मानसीक प्रताड़ना को भी बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है।
क्या हम वर्तमान विवाह पध्दति को इस कानूनी धारा का पालन करने योग्य मानते हैं? ऋग्वेद के अनुसार-
ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिर: पुरुचिदर्णावं जगन्वान्।
पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यान:॥
विवाह का प्रयोजन वंश चलाना है, स्वयंवर विधि से विवाह होने चाहिए। परन्तु सम्पूर्ण समाज का वर्तमान ढांचा प्राचीन संस्कारित विवाह पध्दति का विकृत स्वरूप हो गया है, और ऐसा होना लाजमी भी है। क्योंकि इस गंभीर विषय पर हजारों वर्षों से कभी शोध कार्य किया ही नहीं गया। देशकाल परिस्थितियों के कारण मूल स्वरूप में परिवर्तन तो होता ही है, परन्तु उसमें शुध्दता लाने का कार्य बीच-बीच में होता रहना चाहिए। जो कि विवाह के संदर्भ में बहुत समय से नहीं हो पाया। ऊपरी परिवर्तन भले ही हो जाएं, परन्तु इसका मूल स्वरूप हमेशा एक जैसा ही रहना चाहिए। आज विवाह का मूल स्वरूप बलात्कार का शिकार हो चुका है। विवाह संस्कार ने विवाह बंधन का रूप ले लिया है। जहाँ 'बंधन' हो वहाँ 'मुक्ति' तो कल्पना मात्र है। इस बंधन से हर वह व्यक्ति दूर रहना चाहता है, जो युवा है। परन्तु समाज की यह दलदल उसे एन-केन-प्रकारेण अपने ढाँचे में ले ही लेती हैं। इस दलदल में फँसने के पश्चात् कोई भी इसका विरोधी कैसे हो सकता है? क्योंकि वह भी उसका एक हिस्सा जो बन गया है।
आज का विवाह, विवाह न होकर धंधा बन गया है। स्त्री और पुरुष को जोड़ने के लिए, उनकी शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु खरीद-फरोख्त के लिए मैरिज ब्यूरो के नाम से जगह-जगह व्यवसायिक संस्थाएँ बन गई हैं। प्राचीन विवाह संस्कार संस्थान की जगह मैरिज ब्यूरो रूपी व्यवसायिक संस्थाओं ने ले ली हैं। मैरिज ब्यूरो के संचालनर् कत्ताओं के लिए विवाह धन कमाने का एक जरिया हो गया है। इस व्यवसायिक विवाह में 'मन' को मिलाने के बजाय, शरीरों को गुलामों की भाँति बेचा व खरीदा जाता है। क्या आज की ईमेल पध्दति 'मन' का मिलन कराने में कामयाब हो पाएगी? क्या यह हमारी भारतीय संस्कृति का आइना है।
भारतीय समाज रचना में विवाह के प्रारम्भ होने का कारण उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु का मिलता है। एक बार की बात है- श्वेतकेतु की माता जाबाला अपने रसोई में भोजन पका रही थी कि, उसी समय एक शक्तिशाली व्यक्ति आया और उसे बलात अपनी वासना पूर्ति के लिए ले गया। श्वेतकेतु के मन में इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। वयस्क होने पर वह एक महान ऋषि बना और उसने समाज में विवाह नामक संस्कार पध्दति की आधारशीला रखी।
इस कथा के मूल में मन की इच्छा के विपरीत किए गए शारीरिक संबंधों को ही अनुचीत ठहराते हुए विवाह संस्कार का प्रारम्भ किया गया। ऋग्वेद में एक बड़ा ही रोचक संवाद यम और यमी के माध्यम से किया गया है-
(यम-यमी सूक्त)
न ते सखा सख्यं वष्टयेतत् सलक्ष्मा यद् विषुरूपा भवाति।
महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परित्यन्॥
पहले मंत्र में पत्नी ने विवाह का उद्देश्य बताकर पति से संतान की कामना प्रकट की।
यमी : हे यम, वंश और पृथ्वी को चलाने हेतु तुम मुझमें योग्य संतान हेतु बीज रोपण करो।
यम : हे यमी, तुम अपने दृष्टिकोण को विस्तृत करो, जो धार्मिक, देशहितकारी, ईश्वर भक्त लोग है, उन सबको अपनी संतान मान लो। सच्ची संतान तो वही है।
उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित् त्यजसं सर्त्यस्य। 
नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्यु: पित स्तन्वमा चिविश्या:॥यमी : हे यम, जो अमर होना चाहते हैं, वे लोग संतान की कामना करते ही है और एक मरने की कामना करने वालों को यह त्याय ही है। यद्यपि जो लोग संसार में नाम अमर करना चाहते हैं, वे अवश्य ही संतान की कामना करते हैं। दूसरे भले ही न करें। हे पतिदेव अपने मन को मेरे मन में धारण करो, अर्थात् तेरा मन मेरे चित्त के अनुकूल हो संतान पैदा करने को अभिलाषी पति मेरे शरीर में गर्भ धारण करें।
न यत् पुरा चकृमा कध्द नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम।
गंधर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभि: परमं जामि तन्नौ॥
यम : निश्चय से उसे कभी नहीं करेंगे जो पहले किया, अर्थात् पहले की तरह गृहस्थ कार्य में प्रवत्त नहीं होंगे। ज्ञान की चर्चा करते हुए हम क्या लगातार झूठा सांसारिक व्यवहार करें। पति तो यज्ञ कर्म के निमित्त से पति होता है और पत्नी भी यज्ञगत कर्मों से पत्नी कहलाती है। यह यज्ञ क्रिया ही हमारा संबंध कराने वाली है। यह यज्ञ परोपकार ही हमारा सर्वश्रेष्ठ संतान कर्म हैं। 'यम' का अभिप्राय: यह है कि पुत्र यश और कीर्ति के साधन होते हैं। यदि निकम्मी संतान हुई तो अपकीर्ति का कलंक माथे पर लगता है। अत: हम स्वयं ही पुत्र साध्य कर्म साधन करें।
गर्भे नु नौ जनिता दंपती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूप:। 
न किग्स्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथिवी उत द्यौ:॥
यमी : अब यहाँ यमी, यम को समझाते हुए कहती है, कि हे यम, गर्भ में ही जगतपिता सर्वेश्वर सबको रूप देने वाले भगवान ने हम दोनों को पति-पत्नी बनाया है। इसके नियमों को कोई नहीं तोड़ेगा। वह हमारे इस संबंध को जानता है कि यह पृथ्वी (पत्नी) और यह (धौ) पति है।

को अस्य वेद प्रथमस्याह्न: क ईं ददर्श क इह प्र वोचत्। 
बृहन् मित्रस्य वरुणास्य धाम कदु ब्रव आहनो वीच्या नृन॥

यम : उस पहले दिन की बात को कौन जानता है? किसने उसे देखा है? इस विषय में किसने कहा? अर्थात् तुम अमूक बात कह रही हो गप्प जड़ रही हो। स्नेही प्रभु का धाम बड़ा है, हे व्रत भंगत्परे!
मर्यादा नाशिनी, तु छल से मनुष्यों को क्या कहती है।

यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सह शेय्याय। 
जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिद् वृहेच रथ्येव चक्रा॥
यमी : एक स्थान पर साथ सोने के लिए मुझको यम विषयक अभिलाषा हुई हैं, कि मैं पति के आगे पत्नी के स्वरूप में ही शरीर प्रकट कर सकूं। हम दोनों रथ के चक्रों की भाँति पुरुषार्थ करें। हम गृहस्थ रूपी रथ के दोनों चक्र है। तेरे न मानने से रथ टूट जायेगा।

न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति। 
अन्येन मदाहनो याहि तूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा॥ 

यम : देवदर्शी जो इस संसार में भ्रमण करते है, वे लोग न ठहरते है न ऑंख झपकते हैं। अर्थात् वितरागी न स्थान बनाते हैं और नहीं सोते हैं। तु समान स्थान पर साथ सोने की बात कह रही है। यह कैसे हो सकता है। हे मर्यादा शुन्ये! शीघ्र मेरे अतिरिक्त किसी के साथ जा, उस के साथ-साथ रथ के पहिए के सदृश्य चेष्ठा कर। यहाँ संतान अभिलाषी पत्नी को पति ने नियोग की अनुज्ञा दे दी।

रात्रि भिरस्मा अहभिर्दशस्येत् सूर्यस्य चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात्।
दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यस्य बिभृयादजामि॥

सूर्य का नेत्र बार-बार खुले और दिन-रात की धाराएँ इसे उपदेश दे कि, धौ और पृथ्वी यह जोड़ा परस्पर समान बंधन वाले हैं। तब क्या यमी यम के संबंध विच्छेद को धारण करें। क्योंकि यमी तो यम को पास रखना चाहती हैं, किन्तु दिन-रात या धौ और पृथ्वी कभी इकट्ठे हो नहीं सकते।

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामय: कृण वन्नजामि। 
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्॥
यम : विवाह के पश्चात् ऐसे समय आते ही है, जब पत्नी अपत्निक कार्य करती है। हे सौभाग्यवती! मुझसे भिन्न पति की कामना कर। किसी दूसरे सामर्थ्य के प्रति अपनी भुजा फैला।

किं भ्रातासद् यदनाथं भवाति किमु स्वसा यन्निर्ऋतिंनिगच्छात्। 
काममूता बह्वेएतद् रपामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि॥ 

यमी : वह तुच्छ पति होता है, जिसकी विद्यमानता में पत्नी अनाथ हो जाए। वह गर्भाधान की अभिलाषणी ही क्या हुई, जो इस दु:ख को सहे काम से बंधी मैं यह बहुत बातें कह रही हूँ, कि मेरे शरीर से अपना शरीर संयुक्त कर। (यहाँ यमी यम के हृदय को हिलाना चाहती है।)

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्य: स्वसारं निगच्छात्।
अन्येन मत्प्रमुद: कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्टयेतत्॥ 

यम : तब यम कहता हैं- तेरे शरीर के साथ अपने शरीर को किसी प्रकार भी संयुक्त नहीं कर सकता हूँ। उसे पापी कहते हैं, जो संयम की प्रतिज्ञा करके भी संगमाभिलाषिणी से संगम करें। मुझसे भिन्न किसी अन्य के साथ भोग प्राप्त करों। हे सौभाग्यवती! तेरा पति यही चाहता है।

बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम।
अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परि ष्वजाते लिबुजेव वृक्षम्॥ 

यमी : हे यम! तू बलहीन है। तेरे दिल-दिमाग को हम न जान पाये। यमी अब यम पर आक्षेप करती हुई कहती है- कोई दूसरी तुझसे आलिंगन करेगी जैसे पेटी कुंदे का अथवा लता वृक्ष का आलिंगन करती है।
यहाँ यमी ने यम के मर्मस्थल पर प्रहार किया है, किन्तु यम अविचल रहता है और कहता है-

अन्यमू षु त्वं यम्यन्य उ त्वां परि ष्वजाते लिबुजेव वृक्षम्। 
तस्य वा त्वं मन इच्छा स धा तवाधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम्॥

यम : हे यमी! किसी दूसरे को तू अच्छी प्रकार आलिंगन करें और कोई दूसरा ही तुझे आलिंगन करें। जैसे लता वृक्ष को करती है। तू उसके मन की इच्छा कर और वह तेरे मन की और तुम दोनों कल्याणमय भोग को करते हुए सुसंतति उत्पन्न करो। यम और यमी के इस दृष्टांत से स्पष्ट हो जाता है कि विवाह संस्कार मनोगत हृदय स्थल पर किया गया हो तो ठीक हैं, वहीं विवाह के पश्चात् दोनों में से चाहे वह पति हो या पत्नी कोई भी यह नहीं चाहता है कि वह शारीरिक संबंध बनाये या अच्छी संतति को जन्म देने की मनोदशा में नहीं है, तो वह इच्छुक योग्य पुरुष को आलिंगन करने हेतु स्वतंत्र होनी चाहिए। इसी भावना की अभिव्यक्ति यम ने यमी के प्रति यह कहकर की है, कि तू किसी दूसरे पुरुष के 'मन' की इच्छा कर और वह तेरे 'मन' की और तुम दोनों कल्याणकारी भोग को करो। मेरी ओर से कोई बाध्यता नहीं है। अर्थात् सारे प्रकरण में बंधन नाम की कोई भी बात नहीं है। कोई बाध्यता नहीं। कोई दमन नहीं, कोई बलात्कारी व्यवस्था नहीं है। एक विराट हृदयशिलता का संबंध पति-पत्नी के बीच व्यक्त होता हैं, जिसमें ईश्वर प्राप्ति की गंध घुलित है। इसीलिए तो विवाह के दौरान हजारों हादसे अपराध, दु:ख, चिंताएँ, लड़ाई-झगड़े देखने को मिल रहे हैं।
समाज में एक लोकयुक्ति प्रचलित है, कि सारी लड़ाई की जड़ जर, जोरू और जमीन है। जर अर्थात् 'धन', जोरू 'पत्नी' और जमीन 'धन का ही एक स्वरूप है'। और आज तक स्त्री को हमने धन की श्रेणी में ही ला कर खड़ा किया है। इसलिए लड़ाइयाँ तो होना निश्चित हैं। जिस तरह से धन के आदान-प्रदान में शतर्ें लेखा-जोखा रखते हैं, ठीक उसी तरह पत्नियों की भी लिखा-पढ़ी होती है। जमीन की रजिस्ट्री की तरह समाज के रजिस्ट्रार विवाह बंधन रूपी स्टाम्प पेपर पर हजारों गवाहों की उपस्थिति में हस्ताक्षर करते हैं। कहा है- मन का वह धरातल, जिसमें पुरुष उत्तम बीजारोपण कर सुसंतति की आधारशिला रखता था। पत्नी लड़ाई का कारण कैसे बन गई। क्योंकि हमने उसका दमन किया है। वह हमारे बलात्कार से आहत है। इसलिए अपनी घूटन कहीं तो निकालेगी। अत: लड़ाइयाँ तो छिड़ेगी ही।

द्रोपदी का व्रतांत अक्सर महाभारत का कारण दर्शाता हैं। ऐसा इसलिए हुआ- क्योंकि द्रोपदी का वरण तो सिर्फ अर्जुन ने ही किया था। मजबुरी वश द्रोपदी को चार और पांडवों से अतिरिक्त संसर्ग करना पड़ा। यही घुटन द्रोपदी के माध्यम से अहंकार बनकर निकली और महाभारत का कारण बना ।